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Friday 5 August 2016

गीत भी गाया बहुत

ग़ज़ल
ताज उल इरफान  उसमानी


साज़-ए-हस्ती पर ख़ुशी के गीत भी गाया बहुत
 गर्दिश सात आसमां ने गम भी दिखलाया बहुत
ख़ूगर ज़िंदाँ स था लेकिन बरसर फ़स्ल-ए-बहार
दिल-फ़रेबी ने चमन की हमको बहकाया बहुत
तितलियाँ टूटें क़फ़स की क़ैद से पाली नजात
हाँ मगर याद क़फ़स ने दिल को तड़पाया बहुत
आँख जो उनसे मिली किया जाने क्या याद आगया
वो भी शरमाए बहुत और में भी शरमाया बहुत
जब हुजूम-ए-यास से अफ़्सुर्दा में होने लगा
याद-ए-जानाँ की तपिश ने दिल को गर्माया बहुत
मैकदा में भी सिक्कों ताहिर मुझे मिलता नहीं
हज़रत-ए-नासेह ने आके वां भी समझाया बहुत


غزل
تاج العرفان عثمانی


ساز ہستی پر خوشی کے گیت بھی گایا بہت
گردش سات آسماں نے غم بھی دکھلایا بہت
خوگر زنداں س تھا لیکن بر سر فصل بہار
دل فریبی نے چمن کی ہم کو بہکایا بہت
تتلیاں ٹوٹیں قفس کی قید سے پالی نجات
ہاں مگر یاد قفس نے دل کو تڑپایا بہت
آنکھ جو ان سے ملی کیا جانے کیا یاد آگیا
وہ بھی شرمائے بہت اور میں بھی شرمایا بہت
جب ہجوم یاس سے افسردہ میں ہونے لگا
یاد جاناں کی تپش نے دل کو گرمایا بہت
میکدہ میں بھی سکوں طاہرؔ مجھے ملتا نہیں
حضرت ناصح نے آکے واں بھی سمجھایا بہت

Wednesday 3 August 2016

तेरी मस्ती के अफ़साने रहेंगे

मुबश्शिर इबन ताहिर उसमानी

कलीम आए भी अपनी ग़ज़ल सुना भी गए
अलाप भी गए रो भी गए रुला भी गए
सोज़-ओ-गुदाज़ में डूबी हुई एक आवाज़ जो ७० और ८० की दहाई में कुल हिंद मुशाविरों की जान हुआ करती थी आज ख़ामोश हो गई।पदम-श्री डाक्टर कलीम आजिज़ इस दुनिया में नहीं रहे।उन्होंने अपने मुनफ़रद अंदाज़ बयान से उर्दू शायरी में मीर के लहजे को आगे बढ़ाया।अपनी ज़िंदगी के सबसे बड़े उल-मनाक हादिसों को उन्होंने आफ़ाक़ी बना दिया। उनकी दर्द-भरी उल-मनाक यादें सिर्फ उन्ही तक महिदूद नहीं रहीं बल्कि उनके अशआर में वो तारीख़ का हिस्सा बन गईं। लाल क़िला के मुशायरा में पढ़े गए इस शेअर
दामन पे कोई छींट ना ख़ंजर पे कोई दाग़
तुम क़तल करो है कि करामात करो हो
को आज भी अह्ले इल्म याद करते हैं तो इस कमज़ोर जिस्म के नातवां इन्सान कयास शदीद शेअरी एहतिजाज को नहीं भुला पाते।आज भी ये शेअर ज़बान ज़द ख़ास-ओ-आम है।ख़ुद कलीम आजिज़ को इस बात का एहसास था कि ये तल्ख़ लहजा अगर ग़ज़ल के हसीन पीराए में क़ैद ना होता तो क़ाबिल गर्दनज़दनी क़रार दिया जाता।ये शेअर बल्कि पूरी ग़ज़ल मुख़ातब-ए-ग़ज़ल के मिज़ाज नाज़ुक पर कितना गिरां गुज़री ये तो मालूम नहीं लेकिन लाल क़िला के मुशाविरों में कलीम आजिज़ की शिरकत हमेशा के लिए ममनू क़रार पा गई।ख़ुशनुदी हासिल करने की ये रिवायत आज भी ज़िंदा है और अकैडमी के अर्बाब इक़तिदार बख़ूबी इस रिवायत को ना सिर्फ क़बूल कर रहे हैं बल्कि उसे आगे भी बढ़ा रहे हैं।
कलीम आजिज़ की शायरी हिन्दोस्तान के समाजी-ओ-सयासी हालात का भरपूर मंज़र-नामा पेश करती है।वो मुनाज़िर-ओ-वाक़ियात जो कलीम आजिज़ की शायरी का बुनियादी जुज़ बने वो आज भी मुख़्तलिफ़ शक्लों में दोहराए जा रहे हैं।खोने और लुट जाने का एहसास बहुतों को सत्ता रहा है।आज भी लोगों के दिल इसी तरह ज़ख़मों से चूर हैं और हर दर्द मंद इन्सान उस को अपनी ज़िंदगी का एक हिस्सा समझता है ।यही सबब है कि क़ारी डाक्टर आजिज़ का जब भी कोई शेअर पढ़ता है तो उसे वो अपने दिल से निकलती हुई आवाज़ महसूस करता है।अगर अपने अशआर की तरसील में कलीम आजिज़ की अना पसंदी का दख़ल ना होता तो शायद आज वो हिन्दोस्तान की गली कूचों के सबसे मक़बूल होते।
एक ज़माना था कि कलीम आजिज़ हिन्दुस्तानी मुशाविरों की जान हुआ करते थे।मेरे वालिद हज़रत हकीम शाह मुहम्मद ताहिर उसमानी फ़िर्दोसी ऒ जो ख़ुद भी एक शायर थे डाक्टर कलीम आजिज़ से ख़ुसूसी लगाओ था।इस ज़माने में वो जब भी धनबाद तशरीफ़ लाते तो हमारे घर ज़रूर आते।वालिद मुहतरम से घंटों अदबी-ओ-शेअरी गुफ़्तगु होती और बातों ही बातों में एक शेअरी नशिस्त होजाती।मुशाविरों में एक एक शेअर के लिए नाज़-ओ-अंदाज़ दिखाने वाले क्लेम आजिज़ इतनी मुहब्बत से शेअर पर शेअर सुनाते के उनकी फ़राख़दिली देखते ही बनती।शायद डाक्टर कलीम आजिज़ को एहसास था के इस महफ़िल में उनके सच्चे क़द्र-दाँ मौजूद हैं। यही सूरत-ए-हाल मेरे ख़ालू सय्यद नातिक़ कादरी और मामूं तारिक़ कादरी के साथ थी।नहीं मालूम उनके दिलों पर इस सानिहा के बाद क्या गुज़री होगी। कलीम आजिज़ उनके लिए मुशफ़िक़ बड़े भाई और हमदम से कम ना थे।उनके आबाई गांव बमनडीहा जो औरंगाबाद बिहार में वाक़्य है वो अक्सर तशरीफ़ लाते। तब्लीग़ की अहम मामूलात की अदायगी के बाद अदबी गुफ़्तगु मुशायरा में तबदील होजाती और फिर कलीम आजिज़ के अशआर और वाह वाह की यलग़ार का एक ना ख़त्म होने वाला सिलसिला शुरू होजाता और फिर मोअज़्ज़िन ही इस सिलसिला को लगाम लगा पाता।इस महफ़िल में कलीम आजिज़ नाअतें ग़ज़लें यहां तक के गीत भी सुनाते जो कभी बिहार की अदबी रिवायत का एक हिस्सा हुआ करती थीं।मेरे वतन झरिया में तो डाक्टर कलीम आजिज़ के आने का सिलसिला तो रफ़्ता-रफ़्ता कम हो गया बल्कि वालिद-ए-माजिद के इंतिक़ाल के बाद बिलकुल ही ख़त्म हो गया लेकिन बमनडीहा आने का सिलसिलाता हाल रहा।
ये कहना ग़लत ना होगा के ये शेअरी नशिस्तें इन मुशाविरों से बिलकुल अलग थीं जो बैन-उल-अक़वामी सतह पर अरब ममालिक में मुनाक़िद हुआ करती थीं । बाअज़ वजूहात की सबब उन्होंने हिन्दुस्तानी मुशाविरों में हिस्सा लेना बहुत पहले ही तर्क कर दिया था।आज अदबी दुनिया की अहम शख़्सियतें उर्दू मुशाविरों के तहज़ीबी ज़वाल पर उंगलियां उठा रही हैं लेकिन कलीम आजिज़ के हस्सास मिज़ाज ने बरसों क़बल इस माहौल से अपनी ज़ात को अलग कर लिया था।उन्हें डर था
कोई नाशिनास मिज़ाज-ए-ग़म कहीं हाथ उस को लगा ना दे
गरचे ये मौक़ा शिकवा-ओ-शिकायत का नहीं लेकिन जब हम इस पहलू पर ग़ौर करते हैं कि आख़िर वो कौन सी वजूहात थीं जिनकी बिना पर जब उनके अह्द के दूसरे शोअरा मुशाविरों में अपनी धूम मचा रहे थीं कलीम आजिज़ ने इन मुशाविरों से ख़ुद को अलग कर लिया।आख़िर क्यों दबिस्ताँ अज़ीमाबाद के इस अज़ीम शायर ने दबिस्ताँ दिल्ली और दबिस्ताँ लखनऊ से सजे स्टेज पर अपनी मौजूदगी को अपनी रुस्वाई का सबब जाना।ख़ुद्दारी का वो कौन सा जज़बा था जिसने मुशाविरों के स्टेज से दूरी को ही अपने इज़्ज़त नफ़स की तसकीन का ज़रीया जाना। गरचे उस ज़माने में मेरी उम्र बहुत कम थी लेकिन मुझे आज भी याद है शेरवानी और चूड़ीदार पाजामे में मलबूस ये बारीश और पुरनूर शख़्सियत किस तरह जाम-ओ-मीना में डूबे शाइरों के लिए बाइस तज़हीक होती थी ।उनके सामने ज़बान खोलने की तो किसी में हिम्मत ना थी लेकिन उनकी शायरी में शामिल इलाक़ाई लब-ओ-लहजा जो किसी हद तक ज़बानॱएॱ मीर के क़रीब होने के बावजूद उन के लिए बाइस मज़ाह होता था।आजिज़ का ये शेअर
रखना है कहीं पांव तो रखू हो कहीं पांव
चलना ज़रा आया है तो चलो हो

पौदों में रस्म-ए-शादी

ऐस.ऐम. नातिक़ कादरी

पौदों की दुनिया बहुत अजीब-ओ-ग़रीब है, साख़त के एतबार से उनके मुख़्तलिफ़ इक़साम,उनका उगना और नशओ नुमा पाना, उनके अंदर पाए जाने वाली मुख़्तलिफ़ आदात-ओ-अत्वार ,क्विव-ए-दिफ़ा, निकाली की आदत , राहत-ओ-तकलीफ़ से मुतास्सिर होना, कभी कभी अपने दिफ़ा के वास्ते जानवरों पर हमला-आवर होजाना ऐसी हैरत-अंगेज़ हक़ीक़तें हैं कि उनका मुताला बड़ा दिलचस्प और काबिल-ए-ग़ौर है।क़ुदरत ने आम तौर से हैवानात सेनबातात को कमज़ोर बनाया है मगर पौदों की अफ़्ज़ाइश-ए-नसल के लिए क़ुदरत काइंतिज़ाम बड़ा ही हैरानकुन और जाज़िब-ए-नज़र है। इन्सान और हैवान की बक़ा और आबादी में इज़ाफ़ा के लिए नर और माद्दा का मिलाप ज़रूरी अमल है, इन्सानी दुनिया में इस रस्म-ए-तिब्बी को रस्म-ए-शादी से ताबीर करते हैं । क़ुदरत ने पौदों की आबादी में इज़ाफ़ा और इस की नसलों को फ़रोग़ देने के लिए पौदों के अंदर भी बाहमी शादयात काबड़ा लतीफ़ और अनोखा इंतिज़ाम कर रखাा है, साईंस और इल्म-ए-नबातात की ज़बान में इस ख़ुसूसी अमल को पालीनीशन(pollination) कहते हैं और इस का इन्हिसार फूलों पर है
जिस तरह इन्सानी दुनिया में शादी की एक उम्र तिब्बी है इसी तरह पौदों में भयायक ख़ास मुद्दत के बाद फूल का आना उनके अज़दवाजी ज़िंदगी का आग़ाज़ है ,इन ही फूलों में नर और माद्दा फूल होते हैं ।बाअज़ पौदों में ये नर और माद्दा फूल एक साथ होते हैं यानी एक ही फूल के कटोरे में दोनों किस्म के जिन्स मौजूद होते हैं , ऐसे फूलों को मुकम्मल pletecom flower फूल कहते हैं । बाअज़ पौदों में नर और माद्दा फूल एक ही पौदे में होते हुए भीमुख़्तलिफ़ जगह पर उगे रहते हैं । मकई के पौदों में इस के बालाई हिस्सा पर जो धान की बाली की शक्ल का फूल होता है वो नर फूल कहलाता है और पौदों के तने में पतियों की गाँठ के क़रीब मकई के बाल की मोच निकलती है ये माद्दा फूल है।
(pollination) पालीनीशन के अमल को समझने के लिए नर और माद्दा फूल के मुख़्तलिफ़हिस्सों को समझना ज़रूरी है ।नर फूल का घुंडीदार बालाई हिस्सा anther )) अनथर कहलाता है ,ये एक पतली सी छड़ी (filament) फैला मिनट के ऊपर रहता है । नर फूल जब अपने सन्-ए-बलूग़त को पहुंच जाता है तो बालाई हिस्सा पर मौजूद अनथर (anther) में बारीक बुरादे क़वी हो जाते हैं जिनको इल्म-ए-हयात में पोलन ग्रीन्स (pollen grains) कहते हैं यही बारीक ज़र्रात अपने अंदर क्विव-ए-तौलीद रखते हैं और वक़्त-ए-मुक़र्ररा पर माद्दा फूल केबालाई हिस्सा असटग मा (stigma) पर क़ुदरत के मुख़्तलिफ़ कारिंदों की मदद से पहुंच जाते हैं और असटग मा (stigma) से निकलने वाली लसदार सी्याल की वजह से ये पालन ग्रीन्स इस पर चिपक जाते हैं और इस तरह जिन्सी अमल(fertilisation ) शुरू होता है और बीज और फल की बुनियाद पड़ जाती है और देखते देखते फूल मुरझाने लगते हैं और उन की जगह नन्हा सा फल नज़र आने लगता है और एक मुअय्यना मुद्दत के बाद वो भी बड़ा हो जाता हैनर को माद्दा फूल से क़रीब करने में क़ुदरत का बड़ा अनोखा ,हैरत-अंगेज़ और दिलचस्पइंतिज़ाम है जिसको देखकर क़ुदरत की सुनाई का गरवीदा होजाना पड़ता है, ना कोई शोर ना हंगामा, ना बाजा ना गाजा, ना सहरा ना मुकना ,ना बर ना बरात, जैसा कि इन्सानी समाज में आजकल हमने बिना रक्ख्াा है।हमारे यहां ज़न-ओ-शो को बाहम मिलाने का बड़ा पुरवक़ार तरीक़ा है लेकिन मज़हब से दूरी ने इस को एक बहुत बड़ा मसला बना दिया है।
मंसूब ही तै नहीं हो पाती जब तक कि लड़के और लड़की के वालदैन की नाक में दम ना आजाए। खासतौर पर लड़के वालों की तरफ़ से फ़रमाइशों और अनोखी शराइत ने लड़की वालों की जान आफ़त में डाल रक्ख्াी है। ये क्या सितम है कि कल तक जिन बच्चीयों की चहल पहल, उनकी तोतली ज़बान अच्छ्াी भली मालूम होती थी आज जवान हो कर घर को रौनक बख़श रही हैं तो वालदैन के दिन का चयन और रातों की नींद हराम होती महसूस हो रही है।शरीफ़ और नादार तबक़ा के सामने लड़कीयों की शादी बहुत बड़ा मसला बन कर रह गई है
आजकल इन्सानी शादी में माल-ओ-दौलत की हवस ,नुमाइश का शौक़ और ज़िंदगी के बामक़सद उसूलों से इन्हिराफ़ साफ़ साफ़ नज़र आता है, उनके मुक़ाबला में मासूम, ख़ामोशऔर गूँगे पौदों की रस्म-ए-शादी कहीं ज़्यादा साफ़ सुथरी और भली मालूम होने लगी है ।माफ़ कीजीएगा इन बातों का तज़किरा यहां बेजोड़ सा मालूम हो रहा होगा लेकिन इन्सानी दुनिया के एक फ़र्द होने के नाते क़लम कुछ ना कुछ तल्ख़ हक़ीक़तों की तरफ़ इशारा कर ही यता है। आईए पौदों की शादी में चलीं, पाली नेशन (pollination ( यानी नर और माद्दा फूलों कोयकजा करने के लिए क़ुदरत ने हुआ, पानी, पतिंगे , भंवरे , मुख़्तलिफ़ किस्म की मक्खियां और तितलीयों से कारिंदों का काम लिया है, ये सारे कारिंदे नर फूल के पालन ग्रीन्स(pollengrains ( को माद्दा फूल के एक मख़सूस उज़ूstigma ) ) तक पहुंचाने का काम करते हैं। फूलों पर मंडलाती तितलियाँ और गुनगुनाते भंवरे सिर्फ़ रौनक-ए-चमन की ख़ातिरनहीं बल्कि क़ुदरत ने ये इंतिज़ाम एक और बहुत ही आला मक़सद के लिए किया है।पतंगों और तितलीयों के पैर और परों पर चिपके पालन ग्रीन्सpollengrains))यानी नर फूल के बारीक ज़र्रात,माद्दा फूल के मख़सूस उज़ू (Stigma) पर जा पड़ते हैं जहां से जिन्सी अमल की शुरूआत होती है और अमल-ए-तौलीद की तकमील के बाद बीज और फल की बुनियाद पड़ती है , धान और गेहूँ की बालियां हूँ, आम के रसीले फल हूँ या अंगूर के सरमस्त ख़ोशे, हर तरह के फल, मेवा-जात सब के सब अपने पैदा होने में इसी पाली नेशन(pollination) के अमल के मरहून-ए-मिन्नत हैं ।फूलों से उठती ख़ुशबू जहां आपके दिल-ओ-दिमाग़ को तरोताज़गी पहुंचाती है वहीं मक्खीयों, पतंगों को अपनी जानिब खींचने में बहुत मुआविन है ।बाअज़ पतंगों की ख़ुराक फूलों का रस यानी यही नीकटर(nectar) है । ये पतिंगे अपना ख़ुराक लेने के लिए मुख़्तलिफ़ फूलों पर बैठते रहते हैं और क़ुदरत उनके रिज़्क़ की फ़राहमीके साथ साथ उनके ज़रीया पाली नेशन (Pollinationके अमल को बरुए कारलाती है।हुआ के लतीफ़ झोंकों के साथ नर फूल के पालन ग्रीन्स pollengrains) ) माद्दा फूल पर जा गिरते हैं । इस का मुशाहिदा मकई के पौदों के साथ बहुत आसानी से किया जा सकता है । आप एक मकई के पौदे को जुंबिश दें ,उस के बालाईहिस्सा पर अगे हुए धान से बारीक ज़र्रात झड़ने लगेंगे। यही पालन ग्रीन्स(pollengrains ( हैं जो मकई के मुलाइम रेशमी बालों के गछु्ुए ( मोच ) पर गिरने से मकई के बाल में दाने पड़ने शुरू हो जाते हैं। अगर कोई इस माद्दा फूल ,मकई के बाल के मुँह पर एक प्लास्टिक की थैली बांध दे और पालन ग्रीन्स(pollengrains ( को मकई के बाल पर ना गिरने दिया जाये तो सब मकई के पौदों में तो दाने मिलेंगे लेकिन इस मख़सूस पौदे में मकई के बाल के दाने बिलकुल नज़र नहीं आएं गे। पानी और हुआ तो खासतौर से नर फूल के पालन ग्रीन्स(pollengrains ( को माद्दा फूल तक पहुंचाते हैं , उस के इलावा कीड़े , पतिंगे , मक्खियां और भंवरे भी नर फूल से निकलने वाली बू के ऐसे मतवाले होते हैं कि इन फूलों पर उनका बैठना नागुज़ीर होता है और इस तरह उनके पैरों और परों पर की मदद से पालन ग्रीन्स(pollengrains ( माद्दा फूल पर पहुंच जाते हैं और अमल-ए-तौलीद का सिलसिला चलता रहता है ।आपने कभी धोके से शादी होते नहीं सुना होगा ।आईए आपको अल्जीरिया के एक पौदे Mirrororchid जिस का हयातयाती नाम (botanical name) अलिफ़-ओ-फर्स् असपीकोलम (ophrys speculam) है का बहुत कामयाब धोके का हाल सुनाता हूँ ।इस का फूल क़ुदरत की अता करदा बेमिसाल क्विव-ए-निकाली की वजह से ख़ुद को एक उड़ती हुईमख़सूस नसल की माद्दा मक्ख्াी की तरह बन कर पेश करता है जिसको देखकर उसीनसल का नर उस की तरफ़ माइल होता हैनबातात के माहिरों का कहना है कि इस फूल की पंखुड़ी के रंगों का इमतिज़ाज, उस का भूरा और चमकीला नीला रंग और इस की बनावट नबातात की दुनिया में बहुत मिसाली है और सच-मुच एक उड़ती हुई मक्ख्াी नज़र आता है , क़ुदरत का ये निज़ाम भी कितना अजीब-ओ-ग़रीब है कि माद्दा मक्ख्াी इन फूलों पर कभी नहीं बैठती बल्कि दूसरे इक़साम के फूलों से अपना रिज़्क़ हासिल करती है।इस माद्दा मक्ख्াी का नर चंद रोज़ पहले निकल आ ताहे और अपनी माद्दा की तलाश में सरगर्दां रहता है और धोके से इस (फूल) को अपनी माद्दासमझ कर इस पर बैठ जाता है,चूँकि उस की जिन्सी भूक का तदारुक नहीं हविपाता इस लिए ये एक फूल से दूसरे फूल पर उड़ता और बैठता रहता है लेकिन इस की इस ख़्वाहिश-ए-वस्ल और अहमक़ाना हरकत से नर फूल के पालन ग्रीन्स(pollengrains ( माद्दा फूल पर पहुंच जाते हैं और बीज और फल की बुनियाद पड़ जाती है । ये बात भी बहुत दिलचस्प औरग़ौर करने की है कि जब माद्दा मक्ख्াी आ निकलती है तो ये नर कभी इन फूलों(नक़ली माद्दा)की तरफ़ राग़िब नहीं होता ।

पौदों की अफ़्ज़ाइश-ए-नसल के लिए क़ुदरत का ये अमल-ए-मख़सूस , पालीनीशन (pollination ( या रस्म-ए-शादी कहलाता है । ये पौदों की अच्छ्াी से अच्छ्াी इक़सामपैदा करने में बहुत मुआविन है। इस काम से लगे माहिरीन(plant- breeders )ने मुख़्तलिफ़नरफोल के पालन ग्रीन्स (pollengrains ( को माद्दा फूल पर तजुर्बा कर के बहुत ही फ़ायदामंद नसलें ती्यार की हैं और इसी तकनीक की मदद से धान, गेहूँ,गुना और मुख़्तलिफ़ किस्म के फलों की ज़्यादा उपज देने वाली किस्में किसानों के पास पहुंच रही हैं। इन किस्मों की ईजादात ने ज़राअत की दुनिया में सबज़ इन्क़िलाब के सुनहरे ख़ाब की ताबीर को हक़ीक़त के बहुत क़रीब कर दिया है

Tuesday 2 August 2016

خیابان ِ خیال



 طیب عثمانی ندویؒ کے مکتوبات کا مجموعہ ''خیابانِ خیال'' پی ڈی ایف شکل میں پڑھنے  کے لئے نیچے ٹائٹل پر کلک کریں۔


Saturday 30 July 2016

Plant Marriage By Natique Quadri

پودوں میں رسمِ شادی
ایس.ایم. ناطق قادری
پودوں کی دنیا بہت عجیب و غریب ہے، ساخت کے اعتبار سے ان کے مختلف اقسام ،ان کا اُگنا اور نشؤو نما پانا، ان کے اندر پائے جانے والی مختلف عادات و اطوار ،قوّتِ دفاع، نقّالی کی عادت ، راحت و تکلیف سے متاثِر ہونا، کبھی کبھی اپنے دفاع کے واسطے جانوروں پر حملہ آور ہوجانا ایسی حیرت انگیز حقیقتیں ہیں کہ ان کا مطالعہ بڑا دلچسپ اور قابلِ غور ہے۔قدرت نے عام طور سے حیوانات سے نباتات کو کمزور بنایا ہے مگر پودوں کی افزائشِ نسل کے لیے قدرت کا انتظام بڑا ہی حیران کن اور جاذبِ نظر ہے۔ انسان اور حیوان کی بقا اور آبادی میں اضافہ کے لیے نر اور مادہ کا ملاپ ضروری عمل ہے، انسانی دنیا میں اس رسمِ طبعی کو رسمِ شادی سے تعبیر کرتے ہیں ۔ قدرت نے پودوں کی آبادی میں اضافہ اور اس کی نسلوں کو فروغ دینے کے لیے پودوں کے اندر بھی باہمی شادیات کابڑا لطیف اور انوکھا انتظام کر رکھّا ہے، سائنس اور علمِ نباتات کی زبان میں اس خصوصی عمل کو پالینیشن(pollination) کہتے ہیں اوراس کاانحصارپھولوں پرہے۔
جس طرح انسانی دنیا میں شادی کی ایک عمرطبعی ہے اُسی طرح پودوں میں بھیایک خاص مدّت کے بعد پھول کا آنا ان کے ازدواجی زندگی کا آغاز ہے ،ان ہی پھولوں میں نر اور مادہ پھول ہوتے ہیں ۔بعض پودوں میں یہ نر اور مادہ پھول ایک ساتھ ہوتے ہیں یعنی ایک ہی پھول کے کٹورے میں دونوں قسم کے جنس موجود ہوتے ہیں ، ایسے پھولوں کو مکمل pletecom flower پھول کہتے ہیں ۔ بعض پودوں میں نر اور مادہ پھول ایک ہی پودے میں ہوتے ہوئے بھی مختلف جگہ پر اُگے رہتے ہیں ۔ مکئی کے پودوں میں اس کے بالائی حصہ پر جو دھان کی بالی کی شکل کا پھول ہوتا ہے وہ نر پھول کہلاتا ہے اور پودوں کے تنے میں پتّیوں کی گانٹھ کے قریب مکئی کے بال کی موچ نکلتی ہے یہ مادہ پھول ہے۔
(pollination) پالینیشن کے عمل کو سمجھنے کے لیے نر اور مادہ پھول کے مختلف حصوں کو سمجھنا ضروری ہے ۔نر پھول کا گھنڈی دار بالائی حصہ anther )) انتھر کہلاتا ہے ،یہ ایک پتلی سی چھڑی (filament) فیلا منٹ کے اوپر رہتا ہے ۔ نر پھول جب اپنے سنِ بلوغت کو پہنچ جاتا ہے تو بالائی حصہ پر موجود انتھر (anther) میں باریک بُرادے قوی ہو جاتے ہیں جن کو علمِ حیات میں پولن گرینس (pollen grains) کہتے ہیں یہی باریک ذرّات اپنے اندر قوّتِ تولید رکھتے ہیں اور وقتِ مقرّرہ پر مادہ پھول کے بالائی حصہ اسٹگ ما (stigma) پر قدرت کے مختلف کارندوں کی مدد سے پہنچ جاتے ہیں اور اسٹگ ما (stigma) سے نکلنے والی لس دار سیّال کی وجہ سے یہ پالن گرینس اس پر چپک جاتے ہیں اور اس طرح جنسی عمل(fertilisation ) شروع ہوتا ہے اوربیج اور پھل کی بنیاد پڑ جاتی ہے اور دیکھتے دیکھتے پھول مرجھانے لگتے ہیں اوران کی جگہ ننھا سا پھل نظر آنے لگتا ہے اور ایک معینہ مدت کے بعد وہ بھی بڑا ہو جاتا ہے ۔
نر کو مادہ پھول سے قریب کرنے میں قدرت کا بڑا انوکھا ،حیرت انگیز اور دلچسپ انتظام ہے جس کو دیکھ کر قدرت کی صنّاعی کاگرویدہ ہوجانا پڑتا ہے، نہ کوئی شور نہ ہنگامہ، نہ باجا نہ گاجا، نہ سہرا نہ مکنا ،نہ بر نہ برات، جیسا کہ انسانی سماج میں آجکل ہم نے بنا رکھّا ہے۔ہمارے یہاں زن و شو کو باہم ملانے کا بڑا پُر وقار طریقہ ہے لیکن مذہب سے دوری نے اس کو ایک بہت بڑا مسئلہ بنا دیا ہے۔
منسوب ہی طے نہیں ہو پاتی جب تک کہ لڑکے اور لڑکی کے والدین کی ناک میں دم نہ آجائے۔ خاص طور پر لڑکے والوں کی طرف سے فرمائشوں اور انوکھی شرائط نے لڑکی والوں کی جان آفت میں ڈال رکھّی ہے۔ یہ کیا ستم ہے کہ کل تک جن بچّیوں کی چہل پہل، ان کی توتلی زبان اچھّی بھلی معلوم ہوتی تھی آج جوان ہو کر گھر کو رونق بخش رہی ہیں تو والدین کے دن کا چین اور راتوں کی نیند حرام ہوتی محسوس ہورہی ہے۔شریف او ر نادار طبقہ کے سامنے لڑکیوں کی شادی بہت بڑا مسئلہ بن کر رہ گئی ہے ۔
آج کل انسانی شادی میں مال و دولت کی ہوس ،نمائش کا شوق اور زندگی کے بامقصد اصولوں سے انحراف صا ف صاف نظر آتا ہے، ان کے مقابلہ میں معصوم، خاموش اور گونگے پودوں کی رسمِ شادی کہیں زیادہ صاف ستھری اور بھلی معلوم ہونے لگی ہے ۔معاف کیجیے گا ان باتوں کا تذکرہ یہاں بے جوڑ سا معلوم ہو رہا ہوگا لیکن انسانی دنیا کے ایک فرد ہونے کے ناطے قلم کچھ نہ کچھ تلخ حقیقتوں کی طرف اشارہ کر ہی یتا ہے۔ آیئے پودوں کی شادی میں چلیں، پالی نیشن (pollination ( یعنی نر اور مادہ پھولوں کو یکجا کرنے کے لیے قدرت نے ہوا، پانی، پتنگے ، بھنورے ، مختلف قسم کی مکھیاں اور تتلیوں سے کارندوں کا کام لیا ہے، یہ سارے کارندے نر پھول کے پالن گرینس(pollengrains ( کو مادہ پھول کے ایک مخصوص عضوstigma ) ) تک پہنچانے کا کام کرتے ہیں۔ پھولوں پر منڈلاتی تتلیاں اور گنگناتے بھنورے صرف رونقِ چمن کی خاطر نہیں بلکہ قدرت نے یہ انتظام ایک اور بہت ہی اعلی مقصد کے لیے کیا ہے۔پتنگوں اور تتلیوں کے پیر اور پر وں پر چپکے پالن گرینسpollengrains))یعنی نر پھول کے باریک ذرّات،مادہ پھول کے مخصوص عضو (Stigma) پر جا پڑتے ہیں جہاں سے جنسی عمل کی شروعات ہوتی ہے اور عملِ تولید کی تکمیل کے بعد بیج اور پھل کی بنیاد پڑتی ہے ، د ھان اور گیہوں کی بالیاں ہوں، آم کے رسیلے پھل ہوں یا انگور کے سرمست خوشے، ہر طرح کے پھل، میوہ جات سب کے سب اپنے پیدا ہونے میں اسی پالی نیشن(pollination) کے عمل کے مرہونِ منّت ہیں ۔پھولوں سے اٹھتی خوشبوجہاں آپ کے دل و دماغ کو ترو تازگی پہنچاتی ہے وہیں مکھیوں، پتنگوں کو اپنی جانب کھینچنے میں بہت معاون ہے ۔ بعض پتنگوں کی خوراک پھولوں کا رس یعنی یہی نیکٹر(nectar) ہے ۔ یہ پتنگے اپنا خوراک لینے کے لیے مختلف پھولوں پر بیٹھتے رہتے ہیں اور قدرت ان کے رزق کی فراہمی کے ساتھ ساتھ ان کے ذریعہ پالی نیشن (Pollination)کے عمل کوبروئے کارلاتی ہے۔ہوا کے لطیف جھونکوں کے ساتھ نر پھول کے پالن گرینس pollengrains) ) مادہ پھول پر جا گرتے ہیں ۔ اس کا مشاہدہ مکئی کے پودوں کے ساتھ بہت آسانی سے کیا جا سکتا ہے ۔ آپ ایک مکئی کے پودے کو جنبش دیں ،اس کے بالائی حصہ پراگے ہوئے دھان سے باریک ذرّات جھڑنے لگیں گے۔ یہی پالن گرینس(pollengrains ( ہیں جو مکئی کے ملائم ریشمی بالوں کے گچُھّے ( موچ ) پر گرنے سے مکئی کے بال میں دانے پڑنے شروع ہو جاتے ہیں۔ اگر کوئی اس مادہ پھول ،مکئی کے بال کے منھ پر ایک پلاسٹک کی تھیلی باندھ دے اور پالن گرینس(pollengrains ( کو مکئی کے بال پر نہ گرنے دیا جائے تو سب مکئی کے پودوں میں تو دانے ملیں گے لیکن اس مخصوص پودے میں مکئی کے بال کے دانے بالکل نظر نہیںآئیں گے۔ پانی اور ہوا تو خاص طور سے نر پھول کے پالن گرینس(pollengrains ( کو مادہ پھول تک پہنچاتے ہیں ، اس کے علاوہ کیڑے ، پتنگے ، مکھیاں او ر بھنورے بھی نر پھول سے نکلنے والی بو کے ایسے متوالے ہوتے ہیں کہ ان پھولوں پر ان کا بیٹھنا ناگزیر ہوتا ہے اور اس طرح ان کے پیروں اور پروں پرکی مدد سے پالن گرینس(pollengrains ( مادہ پھول پر پہنچ جاتے ہیں اور عملِ تولید کا سلسلہ چلتا رہتا ہے ۔آپ نے کبھی دھوکے سے شادی ہوتے نہیں سنا ہوگا ۔آئیے آپ کو الجیریا کے ایک پودے Mirrororchid جس کاحیاتیاتی نام (botanical name) ا و فرِس اسپیکولم (ophrys speculam) ہے کا بہت کامیاب دھوکے کا حال سناتا ہوں ۔اس کا پھول قدرت کی عطا کردہ بے مثال قوّتِ نقّالی کی وجہ سے خود کوایک اڑتی ہوئی مخصوص نسل کی مادہ مکھّی کی طرح بن کر پیش کرتا ہے جس کو دیکھ کر اسی نسل کا نر اس کی طرف مائل ہوتا ہے ۔
۲
نباتات کے ماہروں کا کہنا ہے کہ اس پھول کی پنکھڑی کے رنگوں کا امتزاج، اس کا بھورا اور چمکیلا نیلا رنگ اور اس کی بناوٹ نباتات کی دنیا میں بہت مثالی ہے اور سچ مچ ایک اڑتی ہوئی مکھّی نظر آتاہے ، قدرت کا یہ نظام بھی کتنا عجیب و غریب ہے کہ مادہ مکھّی ان پھولوں پر کبھی نہیں بیٹھتی بلکہ دوسرے اقسام کے پھولوں سے اپنا رزق حاصل کرتی ہے۔اس مادہ مکھّی کا نر چند روز پہلے نکل آ تاہے اور اپنی مادہ کی تلاش میں سرگرداں رہتا ہے اور دھوکے سے اس (پھول) کو اپنی مادہ سمجھ کر اس پر بیٹھ جاتا ہے،چونکہ اس کی جنسی بھوک کا تدارک نہیں ہوپاتااس لیے یہ ایک پھول سے دوسرے پھول پر اڑتا اور بیٹھتا رہتا ہے لیکن اس کی اس خواہشِ وصل اور احمقانہ حرکت سے نر پھول کے پالن گرینس(pollengrains ( مادہ پھول پر پہنچ جاتے ہیں اور بیج اور پھل کی بنیاد پڑ جاتی ہے ۔ یہ بات بھی بہت دلچسپ اور غور کرنے کی ہے کہ جب مادہ مکھّی آ نکلتی ہے تو یہ نر کبھی ان پھولوں(نقلی مادہ)کی طرف راغب نہیں ہوتا ۔
پودوں کی افزائشِ نسل کے لیے قدرت کا یہ عملِ مخصوص ، پالینیشن (pollination ( یا رسمِ شادی کہلاتا ہے ۔ یہ پودوں کی اچھّی سے اچھّی اقسام پیدا کرنے میں بہت معاون ہے۔ اس کام سے لگے ماہرین(plant- breeders )نے مختلف نرپھول کے پالن گرینس (pollengrains ( کو مادہ پھول پر تجربہ کر کے بہت ہی فائدہ مندنسلیں تیّار کی ہیں اور اسی تکنیک کی مدد سے دھان، گیہوں،گنّااور مختلف قسم کے پھلوں کی زیادہ اُ پج دینے والی قسمیں کسانوں کے پاس پہنچ رہی ہیں۔ ان قسموں کی ایجادات نے زراعت کی دنیا میں سبز انقلاب کے سنہرے خواب کی تعبیر کو حقیقت کے بہت قریب کردیا ہے۔

مینڈکی شہزادی

بہت دنوں کی بات ہے ملک روس میں شہنشاہ زار عالی تبار کی حکومت تھی۔اس کے تین لڑکے تھے۔ایک دن زار نے لڑکوں کو بلاکر کہا،،

Friday 29 July 2016

شاعر اسلام،اقبال ۔۔ شخصیت اور پیام


شاعر اسلام،اقبال ۔۔شخصیت اور پیام

طیب عثمانی ندوی

اقبالؒ ایک بڑے شاعر تھے اور اپنے عہد کے سب سے پڑھے لکھے شاعر تھے جس نے اپنے عہد کی صرف اردو فارسی شاعری پر نہیں بلکہ اس دور کے فکر و نظر پر بھی اپنا اثر ڈالا۔ میری مکتب کی تعلیم جس ماحول میں ہوئی وہ علمی و دینی بھی تھی اور شعری و ادبی بھی، جس میں تصوف کی چاشنی تھی، مجلس سماع کے ذریعہ اردو فارسی کی نعتیہ، حمدیہ اور عشقیہ غزلوں سے کان بچپن ہی سے آشنا تھے۔ ابوالکلام کی بلند آہنگ نثر، سید سلیمان ندوی کے خطبات مدراس کی انشاء پردازی کا ذکر اکثر کانوں میں پڑتا اور ساتھ ہی حالی کی مسدس اور اکبر و اقبال کی نظموں کے اشعار گھر کے بزرگوں کی زبانی سنا کرتا۔ اقبال کی مشہور نظمیں ’’بچوں کی دعا‘‘ لب پہ آتی ہے دعا بن کے تمنا میری، زندگی شمع کی صورت ہو خدایا میری، اور ’’دعا‘‘ یا رب دلِ مسلم کو وہ زندہ تمنا دے۔ جو قلب کو گرما دے، جو روح کو تڑپا دے۔ والد مرحوم نے مجھے بچپن ہی میں یاد کرا دی تھیں۔ یہ دونوں نظمیں آج بھی میرے دل پر نقش ہیں۔ پھر جب میں سن شعور کو پہنچا اور چمنستان شبلی و سلیمان ندوی کے ادبی ماحول میں اقبال کو تفصیل سے پڑھا تو واقعہ یہ ہے کہ اقبال کا شیدائی بن گیا اور پھر اقبال میرے لیے کسی عرب شاعر کے اس شعر کے مصداق ہوگئے:
أتانی ھواھا قبل أن أعرف الھوی
فصا د ف قلباً خالیا فتمکنا
(محبت میرے قریب اس حال میں آئی کہ میں محبت سے آشنا نہ تھا، بس اس نے میرے دل کو خالی پاکر اپنا قبضہ جما لیا)
اقبالؒ محبت اور ایمان و یقین کے شاعر ہیں۔ ان کا قلب حب رسول اور عشق رسول سے سرشار تھا۔ عشق و محبت ہی نے اقبال کو یقین کی لذت سے آشنا کیا تھا جس نے انہیں عرفان ذات بخشا اور وہ خودی کے نغمہ خواں بن گئے۔ اقبال مغرب کے ناقد اور مشرق کے پیامبر تھے۔ ان کا کلام، خصوصا ’’ضرب کلیم‘‘ اور ’’پیام مشرق‘‘ اس پر شاہد ہے، انسان کی فطرت یہ ہے کہ وہ اپنی ہی پرچھائیوں کے پیچھے بھاگتا ہے، اقبال کے یہ افکار اور جذبات، میری اپنی پرچھائیاں ہیں جو میرے شعور و احساسات سے ہم آہنگ ہیں، لہٰذا وہ میری اپنی پسند بن گئے، اور ان کی شاعری میرے اپنے دل کی آواز ہے، میں نے یہ جانا کہ گویا یہ بھی میرے دل میں ہے۔
اقبالؒ کی شعریات سے میری یہ والہانہ دلچسپی اور شغف کا یہ مطلب نہیں ہے کہ میرے نزدیک ان کی شخصیت انسانی کمزوریوں سے مبرا، ملکوتی تقدس سے مشابہ ہے۔ میری حمایت میں ایسی حمیت نہیں ہے جو انہیں معصوم قرار دے۔ اس موقع پر مجھے مولانا سید سلیمان ندویؒ کا وہ بلیغ جملہ یاد آرہا ہے جو انہوں نے اپنے استاد علامہ شبلی کی سوانح حیات شبلی میں لکھا ہے کہ شبلی اپنی تمام علمی و ادبی عظمت اور خوبیوں کے باوصف شبلی، شبلی تھے جنید و شبلی نہ تھے۔ میرے نزدیک بھی اقبال بیسوی صدی کے شاعر تھے، مغربی تہذیب کے لیے ایک چیلنج، وہ ایک اسلامی مفکر، فلسفی اور حکیم و دانشور تو تھے لیکن دینی رہنما اور روحانی پیشوا نہ تھے اور واقعہ یہ ہے کہ اقبال، اقبال تھے عطا رو رومی نہ تھے لیکن یہ بھی حقیقت ہے کہ اردو شاعری کی تاریخ میں میر، غالب اور اقبال کے بعد ہنوز کوئی دوسرا ایسا شاعر پیدا نہ ہوسکا، جو اقبال سے ایک قدم آگے اردو شاعری کا چوتھا ستون بن سکتا ہے۔ اقبال نہ صرف اسلامی افکار و اقدار کے ترجمان تھے بلکہ اسلام ان کے دل کی دھڑکن بن چکا تھا جو خون جگر بن کر ان کی آنکھوں سے ٹپکا اور جس نے ایسی زندہ وہ جاوید شاعری کو جنم دیا۔
اقبال کی شاعری کا بیشتر حصہ یقین کی روشنی، محبت کی گرمی اور حرکت و عمل کا ایک ایسا پرکیف و رنگین نغمہ ہے جس کی نغمگی اور آتش نوائی سے حیات کے تار جھنجھنا اٹھتے ہیں۔ اقبال کا ساز حیات بے سوز نہیں ہے بلکہ عشق نے اس میں حرارت اور خودی نے اس میں عظمت پیدا کردی ہے اور اسے جب شاعر کی انگلیاں چھیڑتی ہیں تو اس سے زندگی کے کیف آور نغمے پھوٹ پڑتے ہیں۔
اقبال کی شاعرانہ عظمت صرف یہ نہیں ہے کہ اس نے ہمارے لیے ایسے مسرت آگیں شعر و نغمہ پیش کئے جس کو سن کر ہمارے شعور وجدان کو اہتزاز و انبساط حاصل ہوتا ہے بلکہ اس نے ہمیں ایک نظریہ حیات کا احساس اور ایک نظام زندگی کا شعور اور زندگی کا ایک خاص نقطہ نظر بخشا، جس نظریہ زندگی کا وہ حامی اور جس نظام حیات کا وہ پیامبر تھا اس پر اس نے نہ صرف یہ کہ عمل کرنے کے ترغیب دی بلکہ اس کے کلام میں اس مخصوص نظریہ زندگی کا حسن، اس کا رنگ و آہنگ اور لذت و کیف اس طرح ہم آمیز اور رچا بسا ہوا ہے کہ آج بھی جب ہم اسے پڑھتے ہیں تو ہمارے کانوں میں وہی رنگ و آہنگ، وہی ساز کی جھنکار اور وہی شیریں نغمے گونجنے لگتے ہیں جس سے ہمیں مسرت، نشاط اور بصیرت حاصل ہوتی ہے۔

Thursday 28 July 2016

ڈاکٹر ضیاء الہدیٰ ؒ ۔۔ فقر غیور کاایک مثالی کردار


ڈاکٹر ضیاء الہدیٰ ؒ ۔۔۔فقر غیور کاایک مثالی کردار

از طیب عثمانی ندوی


مجھے یاد نہیں،میں نے جناب ڈاکٹر ضیاء الہدیٰ صاحب ؒ کو کب اور کیسے دیکھا؟ اپنے دور طالب علمی میں ، جب میں تحریک اسلامی سے قریب ہوا اور ندوہ سے چھٹیوں میں گھر آنا ہوتا تو کبھی کبھی پٹنہ بھی جانا ہوتا تو ڈاکٹر صاحب کا نام اکثر سنتا۔ پھر تحریک اسلامی کی قربت کے ساتھ ساتھ ڈاکٹر صاحب کی شخصیت اور ان کے درس قرآن کی شہرت سے واقفیت بڑھتی گئی۔میں نے ان کو جب بھی دیکھا ایک طرح پایا،قمیص ،چوڑے مہری کا پاجامہ،کشتی نما ٹوپی،سادگی کا پیکر،چہرہ روشن،پاک دل و پاکباز ،یہ تھا ڈاکٹر صاحب کا سراپا۔ان کی شخصیت کی ایک اور شناخت ان کی سائیکل بھی تھی،جس پر وہ اپنے پاجامہ کے ایک پائنچہ میں کلپ لگائے عالم گنج سے انجمن اسلامیہ تک اور جانے کہاں کہاں رواں دواں ہوتے۔ مجھے یاد آتا ہے کہ ابتدا میں اکثر ان کو اسی طرح سائیکل پر ہی دیکھا تھا۔یہ انداز بے نیا زانہ اور طرز قلندرانہ میرے لئے باعث کشش ہوتا۔ پھر تحریکی دلچسپی کے باعث اکثر ان سے ملنے، باتیں کرنے، ان کے درس قرآن میں شریک ہونے اور تقریروں کو سننے کا موقع ملا جیسے جیسے قربت بڑھتی گئی ان کی محبت و عقیدت میں اضافہ ہوتا گیا۔ خصوصاً ان کے درس قرآن میں جی لگتا، قرآنی نکتے، سائنسی انداز بیان اور حالات حاضرہ پر ان کا انطباق، ان کے درس قرآن کی خصوصیت تھی۔ جس نے ہر مکتب فکر میں ان کی مقبولیت میں اضافہ کردیا تھا۔ خصوصاً طلبا اور نوجوانوں میں وہ بیحد مقبول تھے، ان کی سیرت کے موضوع پر تقاریر اور انجمن اسلامیہ کے جمعہ کے خطبے میں تو دور دور سے لوگ سننے کے لئے آتے۔ وہ جس ایمان و یقین کی دولت سے مالامال تھے، اس کا اثر نئی نسل پر بیحد پڑتا، ان کے ذہن و فکر میں جلا پیدا ہوتا، تشکیک و تذبذب کے اندھیرے دور ہوتے اور ان کے اندر ایمان و یقین کی قندیلیں روشن ہوجاتیں۔ ڈاکٹر صاحب کی زندگی کا سب سے نمایاں پہلو ان کی فقر و درویشی تھی، جو موجودہ معاشرہ اور اپنے ہم عصروں میں انہیں بہت ممتاز کر دیتی تھی۔ یہ فقر، ’’فقر خود اختیاری‘‘ تھا۔ حکومت کی اعلیٰ ملازمت اور دنیاوی ترقی کے امکانات کو چھوڑ کر ہومیوپیتھ ڈاکٹری کے پیشہ کو اختیار کیا تھا، جس سے انہیں بڑی مناسبت تھی۔ جو ان کی بقدر کفاف زندگی کا ذریعہ تھا، صاف ستھری اور سادہ رہن سہن ان کا طرۂ امتیاز تھا۔ تحریک اسلامی کے کاموں میں وہ ہمہ وقت مشغول رہتے، پھر امیر حلقہ بھی ہوئے لیکن جماعت کے ضابطہ کے مطابق بقدر کفاف، کوئی رقم اپنی ذات کے لئے قبول نہیں کی۔ ڈاکٹر صاحب کے اندر تحقیق و جستجو اور نئی نئی ایجادات کا شوق اورفطری جذبہ تھا، نئی نئی دوائیں بنانے کے تجربے کرتے، عطر سازی کا خاص ذوق اور مشغلہ بھی تھا۔ طبابت و تجارت بھی بس اتنا ہی کرتے جو ان کے لئے بقدر کفاف ہوتے۔ جلبِ منفعت ان کا مطلوب و مقصود نہ تھا، وہ کبھی کسی کی مالی طور پر ممنون احسان نہیں ہوئے، اپنے مخلص، عقیدت مند اور قریبی رفقاء جو ان سے محبت رکھتے تھے، اس معاملہ میں ان سے بھی محتاط رہتے، فقر و درویشی ان کا مزاج تھا اور یہ چیز ان کے لئے باعث لذت و مسرت ہوتی۔ واقعہ یہ ہے کہ وہ ’’فقر غیور‘‘ کے مثالی کردار تھے۔ میرے نزدیک ان کی شخصیت اور زندگی کا یہ ایسا روشن و تابناک پہلو ہے جو اس مادہ پرستانہ اور پرتعیش معاشرہ کے لئے ہمیشہ مشعل راہ رہے گا۔ 
ڈاکٹر صاحب کا تحریک اسلامی کے کاموں، سیرت کے جلسوں اور جماعت کے خطاب عام کے سلسلہ میں اکثر گیا بھی آنا ہوتا، اجتماعات کے علاوہ بھی ان کی صحبت میں مجھے بیٹھنے، ان کی باتیں سننے کا موقع ملتا، وہ زاہد خشک نہ تھے، شائستہ اور پر مزاح گفتگو کرتے، بڑے، بوڑھے اور بچے سبھی ان کی بصیرت افروز گفتگو سے لطف اندوز ہوتے، ان کے خطبے اور تقریر یں سادہ اور دلنشیں ہوتیں، وہ اپنی باتوں کو بڑے یقین اور اعتماد سے کہتے۔ ان کا ایک یقین، لاکھوں شک پر بھاری ہوتا۔ میں جب بھی ان کی تقریریں سنتا، مجھے اس بات کا بڑا احساس ہوتا کہ ڈاکٹر صاحب کا یقین اس رومانی انقلابی تصور سے زیادہ ہم آہنگ ہے، جس کا تعلق زمینی عملی زندگی سے دور اور ایک خیالی رومانس سے قریب تر ہے۔ وہ اکثر اپنی تقریروں میں اس مغربی تہذیب اور مادی دنیا کا نقشہ اس طرح کھینچتے جیسے یہ تہذیب مغرب، اقبال کی زبان میں اپنے ہاتھوں آپ خود کشی پر تلی بیٹھی ہے، شب تاریک کے بعد، نمود سحر کے آثار نمایاں ہیں اور اب اسلامی انقلاب کا سورج بس طلوع ہی ہونے والا ہے۔ اس بات کو وہ جس ایمان اور نبوی یقین و مشاہدے کے انداز سے کہتے کہ کچھ دیر کے لئے سامعین کھو جاتے اور وہ محسوس کرتے کہ اب اسلام کا اجالا پھیلنے ہی والا ہے۔ اسی لئے ڈاکٹر صاحب ملت اور مسلم مسائل سے ہٹ کر، وہ براہ راست غیر مسلموں میں دعوت اسلامی کے قائل تھے۔ میرے خیال میں اسی باعث اپنے آخری دور میں تحریک اسلامی کے بعض عملی پہلو اور ملکی حالات کے تناظر میں حکمت عملی سے خاصا اختلاف ہوگیا تھا۔ جس جماعت اور تحریک سے وہ زندگی بھر وابستہ اور پیوستہ رہے، اس کی مخالفت تو کبھی نہیں کی لیکن عملاً خموش بیٹھ گئے۔ میں اس کی وجہ ان کا وہی رومانی انقلابی تصور سمجھتا ہوں، جو ان کے جذبہ صادق اور یقین کامل سے ہم آہنگ تھا۔ ڈاکٹر صاحب کے ایمان و یقین کی یہ وہ منزل تھی، جس کے لئے ملکی حالات اور وقت درکار تھا اور موجودہ تحریک اسلامی کی اجتماعی قیادت فکر کی اِن دو انتہاؤں کے درمیان پھونک پھونک کر جس طرح قدم بڑھا رہی تھی، ڈاکٹر صاحب اس سے مطمئن نہیں تھے، اور واقعہ یہ ہے کہ آج ملک کے حالات اتنے تشویشناک، پر خطر اور سنگین ہوگئے ہیں کہ اب ضرورت عملی اقدام کی ہے۔ غیر مسلموں میں اسلام کی دعوت کے ساتھ ساتھ ضرورت اس بات کی ہے کہ آج مسلم ملت جن تہلکوں سے دوچار ہے، اور پورا ملک فسطائیت کے جس شکنجہ میں کسا جا رہا ہے اس کے تدارک کے لئے اجتماعی فکر و عمل درکار ہے۔ خدا ہماری قیادت کو حکمت و بصیرت سے نوازے۔
اخیر عمر میں ڈاکٹر صاحب کا تحقیقی ذوق تصوف کی طرف بھی مائل تھا۔ صوفیائے کرام کے اذکارو اشغال ،مشاہدہ و مراقبہ کی وہ سائنسی تحقیق و جستجو کرنا چاہتے تھے، مجھ سے انہوں نے صوفیا کے پرانے بیاض اور اذکار واوراد وظائف کی کتابوں کی فرمائش کی، میرے پاس جو کچھ تھا، ان کے حوالہ کیا، کچھ دنوں کے بعد انہیں مجھے واپس کردیا اور کہنے لگے، میں جو چاہتا تھا وہ اس میں نہیں ہے۔ وہ دراصل قدیم صوفیاء کے ان مشاہدوں اور مراقبوں کی سائنسی توجیہہ و تعبیر کرکے ان کا سائنٹفک تجربہ کرنا چاہتے تھے، نہ جانے وہ اس میں کس حد تک کامیاب ہوسکے۔
بہر حال، ڈاکٹر صاحب کی روشن پاکیزہ زندگی اور قرآنی فکر و بصیرت ہمارے لئے آج بھی شمع راہ ہے، وہ دل روشن، فکر ارجمند اور زبان ہوشمند کے مصداق تھے۔ اللہ تعالیٰ ان کے مراتب و درجات کو بلندفرمائے۔ اور ان کی دینی و اجتماعی کوششوں کو قبول فرمائے۔ اور ۔ ع
آسماں ان کی لحد پر شبنم افشانی کرے

Sunday 24 July 2016

شہزادی الماس

آئینہ دی مرر بچوں کی کہانیوں کا ایک نیا کتابی سلسلہ شروع کر رہا ہے  جس میں ہم وہ کہانیاں  پی ڈی ایف شکل میں پیش کر رہے ہیں جو اب نایاب نہیں تو کمیاب ضرور ہیں۔ پی ڈی ایف شکل میں ان کتابوں کو آن لائن پیش کرنے کا مقصد قطعاً تجارتی نہیں۔ امید ہے وہ پبلشر جو ان کتابوں کے جملہ حقوق کے مالک ہیں ہماری اس جسارت کو معاف کریں گے اور ہمیں بخوشی اس بات کی اجازت دیں گے کہ انہو ں نے اردو زبان کے فروغ اور بچوں کی اصلاحی و اخلاقی   کردار کی بلندی کے لئے جو کاوشیں کیں ہم اسے آگے بڑھائیں۔ یہ ایک محنت طلب کام ہے لیکن اپنے بچوں کے سامنے اپنے بچپن کی لائبریری کا یہ سرمایہ تمام پبلشروں کے شکریہ کے ساتھ پیش کرتے ہوئے خوشی محسوس کر رہے ہیں۔

Shahzadi Almas

Monday 30 May 2016

Maulana Syed Abul Hasan Ali Nadvi (R)

مولانا سید ابو الحسن علی حسنی ندویؒ 
کچھ یادیں کچھ باتیں
از: طیب عثمانی ندوی

آج سے تقریباً نصف صدی سے کچھ زائد ہی 1944ء تقریباً 14 برس کی عمر میں جب میں نے بہ سلسلہ تعلیم ندوہ میں قدم رکھا اور پہلی مرتبہ حضرت مولانا علی میاںؒ کو دیکھ کر جو نقش جمیل میرے قلب پر پڑا تھا آج تک قائم ہے۔ وہ محبوب و دلنواز ذات ادب اسلامی کی نابغۂ روزگار شخصیت، شیروانی میں ملبوس، سیاہ داڑھی، آنکھوں میں یقین کا نور، چہرہ صباحت و بشاشت کا آئینہ جس پر تقویٰ کا جمال نمایاں تھا۔ اس طویل مدت کے میرے شب و روز آپ کی ذات والا صفات سے وابستہ رہے۔ ندوہ کا یہ گوہر شب چراغ، علم و ادب کا مینارہ نور اور روحانیت و تقویٰ کا یہ آفتاب بیسویں صدی کے ساتھ31؍دسمبر 1999ء کو غروب ہوگیا اور جسے رمضان المبارک ۱۴۲۰ھ کی ۲۳ویں شب قدر نے اپنی آغوش سعادت میں لے لیا۔
حضرت مولانا سیدابو الحسن ندیؒ کی وفات حسرت آیات سے بلاشبہ ندوہ میں ایک خلا پیدا ہوگیا ہے، علامہ شبلیؒ ، صاحب گل رعنا و نزہت الخواطر، مولانا عبدالحئیؒ اور مولانا سلیمان ندویؒ کی علمی و ادبی اور دینی خصوصیات و جامعیت کے ساتھ جانشینی جس طرح حضرت مولاناؒ نے کی اور ان کے علمی و ادبی کارناموں میں جو اضافہ کیا وہ قابل قدر ہے۔ مجھے یقین ہے مولانا نے ندوہ کے اہل علم و تقویٰ کی جو ٹیم چھوڑی ہے وہ انشاء اللہ ان کی جگہ لے لے گی اور ان کے بعد ندوہ انشاء اللہ محفوظ ہاتھوں میں رہے گا۔ اللہ تعالیٰ آخرت میں آپ کے درجات کو بلند سے بلند تر فرمائے۔
مولانا کی پہلی گراں قدر تصنیف سیرت سید احمد شہیدؒ ندوہ آنے سے پہلے پڑھ چکا تھا اور اس کا ایک دھندلا سا نقش ذہن پر موجود تھا، پھر جب قریب سے دیکھا تو ان کو اپنے سے قریب تر پایا۔ اپنے گھر کا ماحول دینی تھا خاندانی طور پر بیعت طریقت کے ساتھ بیعت جہاد سے کان آشنا تھے۔ اس کتاب کے پڑھنے سے شہادت ہے مطلوب و مقصود مومن سمجھ میں آیا اور شوق جہد و عمل کے جذبہ میں اضافہ ہوا۔ پھر ایسا ہوا کہ مولانا کی ذات و شخصیت مجھے اپنی طرف کھینچتی چلی گئی، فکر و نظر کے بعض زاویوں کے فرق کے باوجود محبت و عقیدت سے معمور یہ دل آج بھی ویسا ہی ہے۔ مگر میرے جذبہ دل کی تاثیر عجب الٹی نکلی۔ میرا ذہن و دماغ مولانا سید ابوالا علیٰ مودودیؒ کی فکر اور ان کی کتابوں سے قریب ہوتا گیا اور فکری طور پر میں تحریک اسلامی سے قریب ہوگیا۔ مولانا علی میاںؒ ان دنوں حضرت مولانا محمد الیاسؒ کی تحریک تبلیغ سے زیادہ قریب ہوگئے تھے اور عملاً اس کے پرجوش داعی تھے۔ ندوہ میں بڑے بڑے اجتماعات ہوتے، مولانا کی پرجوش و دلنشیں تقریریں ہوتیں۔ ان کی معیت میں ہم ندوہ کے طلباء چٹھی کے دن ہر جمعرات ور جمعہ کو لکھنؤ کے اطراف ودیہات اور قصبات میں تبلیغ کے لیے نکلتے۔ اس طرح مولانا کی صحبت و معیت میں کافی وقت گزرتا اور واقعہ یہ ہے کہ بہت لگتا تھا جی صحبت میں ان کی۔ دل و دماغ کی یہ کشمکش پورے ندوہ کی تعلیمی زندگی میں میرے ساتھ رہی۔ فکر مودودویؒ نے دماغ پر قبضہ کرلیا تھا۔ مذہب کا انقلابی تصور ذہن پر سوار تھا۔ ندوہ کے ماحول میں تبدیلی آرہی تھی یا کی جارہی تھی، فکر شبلی پر ذوق رحمانی و تھانوی پروان چڑھانے کی کوشش تھی۔ وقت کے روحانی شیوخ ندوہ کے مہمان خانہ میں ہفتوں ٹھہرائے جاتے، اہل دل جمع رہتے، ہم طلباء سے مولانا فرماتے ’’ان کی صحبتوں میں بیٹھئے ان کے یہاں مغز ہے، ہمارے یہاں تو صرف چھلکا ہے۔‘‘ میں اکثر ان بزرگوں کی نشستوں میں جایا کرتا، ان کی باتیں سنتا، اہل دل بزرگوں کے قصے بیان ہوتے۔ حضرت جی کے اقوال اور باتیں ایسی جن سے زندگیاں سنورتی ہیں۔ مگر دماغ پر سے فکر مودودیؒ کا انقلابی نشہ اترتا نہ تھا۔ مولانا کے سامنے تو نہیں، ادب مانع تھا، اپنے ساتھیوں کے درمیان کہتا ’’بھائی یہ مغز جو یہاں ہے وہ تو ہمارے گھروں میں موجود ہے، ہم تو یہاں شبلی و سلیمان کے علم و ادب کے چھلکے لینے آئے ہیں۔‘‘ شیخ حرم کی باتیں ذہن کو زیادہ متاثر نہیں کرتی۔ میرے رگ و پے میں جو شوق جہاد اور انقلابی روح کارفرما تھی اس کی تسکین کے لیے فکر مودودیؒ اور اقبالؒ کے ساتھ سید احمد شہیدؒ اور مولانا اسمٰعیل شہیدؒ کے فیضان کی ضرورت تھی۔ فکرِ مغرب اور تہذیبِ جدید کے پائے چوبیں کا علاج و مداوا مجھے یہاں نظر نہیں آتا، گوشوں اور زاویوں سے آگے مجاہد کا تو مستقبل ہے میدانوں سے وابستہ۔ اس فکری فرق کے باوجود اپنا دل مولانا کی ذات اور شخصیت کا نخچیر بن چکا تھا۔ محبت و عقیدت سے معمور یہ دل کبھی ان کے سامنے اپنے تعلق خاطر کے اظہار کی جسارت نہ کرسکا۔ وقت گزرتے رہے فکر و نظر میں دوری کے باوجود، میری محبت و عقیدت میں کوئی کمی نہیں آئی۔ مولانا روحانی اور قلبی طور پر میرے مخدوم بھی ہیں اور مرشد بھی۔ ان دنوں میرے ذہنی و قلبی مناسبت کا یہ حال تھا کہ ایک مرتبہ لکھنؤ کے کسی مرکزی مقام پر مولانا کاایک خطاب عام تھا، ہم طلباء بھی سننے گئے۔ تقریر بڑی دل پذیر اور موثر تھی۔ رات کے تقریباً ۱۲بجے جلسہ سے ہوسٹل واپس آئے اور قلم و کاغذ لے کربیٹھ گئے۔ پوری تقریر ’’صورت اور حقیقت‘‘ کے عنوان سے لکھ ڈالی۔ دوسرے دن حلقہ ادب اسلامی لکھنؤ کی ایک نشست تھی، میں نے وہ مضمون اس میں پڑھا، سبھوں نے پسند کیا۔ ہمارے دوست، م۔نسیم نے مشورہ دیا کہ سہ روزہ اخبار ’’الانصاف‘‘ جو اس زمانہ میں الٰہ آباد سے نکلتا تھا اور تحریک اسلامی کا ترجمان تھا، میں اشاعت کے لیے بھیج دو۔ مضمون اسی دن حوالہ ڈاک کیا جس میں مولانا کی تقریر کا حوالہ نہ تھا۔ مضمون ’’الانصاف‘‘ میں آگیا۔ مولانا نے بھی اپنی اسی تقریر کو’’صورت اور حقیقت‘‘ کے عنوان سے قلم بند فرمایا اور ہفت روزہ ’’تعمیر حیات‘‘ لکھنؤ جو زیر ادارت مولانا عبدالسلام قدوائی ندوی مرحوم صدر شعبہ دینیات، جامعہ ملیہ اسلامیہ، دہلی سے نکلتا تھا وہ مضمون اس میں شائع ہوا۔ یہ بھی اتفاق ہے کہ دونوں کی اشاعت ایک ساتھ ہوئی۔ مضمون میں الفاظ و معانی کی ایسی مناسب اور یکسانیت تھی جیسے ایک ہی مضمون دو ناموں سے دو جگہ شائع ہوا ہو۔ مولانا عبدالماجد دریابادیؒ نے دونوں مضامین کو دو اخبار میں دو ناموں سے ایک ساتھ پڑھا اور اپنے اخبار ’’صدق جدید‘‘ میں بڑی حیرت کا اظہار کیا اور عنوان لگایا کہ کس کا سرقہ ہے؟ ایک مولانا علی میاںؒ کے نام تھا اور دوسر امجھ جیسے گمنام طالب علم کے نام! مجھے اس بات کی بڑی شرمندگی تھی کہ میں نے اپنے اس مضمون میں مولانا کی تقریر کا حوالہ نہ دیا تھا۔ مولانا سے جب ملاقات ہوئی تو بولے مجھے خوشی ہے کہ آپ کو یہ تقریر پسند آئی، میں نے اسے آپ کو دے دی۔ اسی طرح مولانا کے اقبال پر دو عربی مقالوں کا اردو ترجمہ میں نے کیا ’’اقبال کی شخصیت کے تخلیقی عناصر‘‘ اور ’’انسان کامل: اقبال کی نگاہ میں‘‘ مولانا دیکھ کر بہت خوش ہوئے۔ یہ دونوں مضامین مولانا کی کتاب ’’نقوق اقبال‘‘ اور میری کتاب ’’حدیث اقبال‘‘ میں شامل ہیں، اس ترجمہ کو پڑھ کر میرے اکثر احباب کا یہ تاثر تھا کہ اگر مولانا خود اپنے قلم سے اردو میں پیش کرتے تو ایسا ہی ہوتا۔ مولانا کی ذات و شخصیت سے میری اس ذہنی مناسبت اور قلبی تعلق کے باوجود ہماری راہیں جدا تھیں۔ اس زمانہ میں بھی اور بعد میں بھی بہت طلبائے جدید و قدیم مولانا کے توسط سے ذاتی اور مادی فائدے اٹھانے کے لیے مولانا سے چمٹے رہتے۔ ان میں سے اکثر نے مولانا کی ذات و اثرات سے فائدہ اٹھا کر ممالک عربیہ میں بڑے دنیاوی فائدے اور عہدے حاصل کئے۔ میں اپنی درویشی اور کم مائیگی کے باوجود کبھی اپنے ضمیر کا سودا نہ کرسکا۔ مولانا کے لیے میرے دل میں جو بے غرض محبت اور دلی اخلاص و عقیدت تھی اس میں کبھی کوئی کمی نہیں آئی اور آج بھی وہ ویسے ہی باقی ہے۔ اس دوری و مہجوری نے اس میں اضافہ ہی کیا ہے۔
مولانا کے ذاتی کمالات و صفات، ان کا تقویٰ و عبادت، ان کی پاکیزگی میرے لیے ہمیشہ باعث کشش اور نشان راہ بنی رہی، ساتھ ہی میرا ذوق علم و ادب اور قلب و مزاج کی یکسانیت و مناسبت بھی ان کے قرب کا باعث رہا، خصوصاً علامہ اقبال کی شخصیت اور ان کی شاعری کے سلسلہ میں ہم دونوں اقبال کے شیدائی ہیں، جب بھی مجھ سے ملاقات ہوتی میرے ذوق کی مناسبت سے علامہ اقبال کے ساتھ اپنی ملاقات کا ذکر اور ان کی شاعری کے محاسن بیان فرماتے۔ عرب دنیا میں اقبال پر مولانا کی مشہور کتاب ’’روائع اقبال‘‘ اقبال کی شاعری اور فکر و فن کے تعارف کا ذریعہ بنی اور اس کا اردو ترجمہ ’’نقوق اقبال‘‘ اقبالیات میں ایک اضافہ ہوا۔ اردو کے جدید اور معتبر ناقدوں کی زبان میں اردو تنقید میں بھی اس کا ایک مقام ہے۔ ان کے علاوہ مولانا کی دیگر کتابیں اسلامی ادبیات عالیہ میں شمار کئے جانے کے لائق ہیں، خصوصاً ’’تاریخ دعوت و عزیمت‘‘ مسلمانوں کے عروج و زوال کا انسانی دنیا پر اثر‘‘ مختلف تذکرے اور سوانح ہیں،خاکہ نگاری کا بہترین نمونہ ’’پرانے چراغ‘‘ان کی انشا پردازی کے شاہکار ہیں۔مولانا کی خود نوشت سوانح عمری ’’کاروان زندگی‘‘ آپ بیتی اور جگ بیتی دونوں ہی ہے۔ اس میں ان کے سفر کے احوال، خطبے اور تقاریر کے اہم اور قابل قدر حصے آگئے ہیں۔ یہ خود نوشت بجائے خود ادب و انشاء کا مرقع ہے، عام طور پر ہمارے یہاں علمائے دین کی قدر و قیمت ان کی دینی حیثیت اور مذہبی تصانیف سے ہوتی ہے، حالانکہ ان کی نگارشات کی ادبی حیثیت و وقعت بھی مسلم ہے، مثلاً علامہ سید سلیمان ندویؒ کی ’’سیرت النبیؐ‘‘ او سیرت نبوی پر ’’خطبات مدراس‘‘ جہاں سیرت پر اردو عربی کے ذخیروں میں بے مثال ہے، وہیں وہ اپنی ادبی حیثیت اور انشاء پردازی میں بھی لازوال ہے۔ اسی طرح مولانا علی میاںؒ کی ساری تصنیفات خواہ ان کا موضوع کچھ بھی ہو اپنی معنوی گہرائی و گیرائی کے ساتھ اپنی ادبی اہمیت بھی رکھتی ہیں اور ان کا ادبی جمال اور حسن انشاء اردو ادب میں اعلیٰ معیار کا نمونہ ہے جس کا اعتراف پروفیسر رشید احمد صدیقی سے لے کر شمس الرحمن فاروقی جیسے جدید ناقدین تک نے کیا ہے۔ واقعہ یہ ہے کہ مولانا کی علمی و دینی کارناموں کی حیثیت کا اعتراف تو سارا عالم اسلام کر رہا ہے جس کا ثبوت فیصل ایوارڈ اور حکومت دبئی کا گراں قدر ایوارڈ ہے۔ اس کے ساتھ ہی مولانا کی ادبی حیثیت کا اظہار، عالمی سطح پر رابطہ ادب اسلامی کے قیام سے ہوتا ہے جس کے مولانا موصوف ہمیشہ بانی صدر رہے۔ مولانا نے اس ادارہ کے ذریعہ ادب اسلامی کا وزن و وقار عالمی سطح پر ہر مکتب فکر کے جدید و قدیم عالموں، ادیبوں اور دانشوروں سے منوا لیا ہے۔ ایک عالم، دانشور، ادیب اور ناقد کی حیثیت سے دیکھا جائے تو مولانا ادب اسلامی کے نابغۂ روزگار تھے اور بلاشبہ جن کی ہمہ جہت، ہشت پہلو شخصیت کا معترف آج بر صغیر ہند کے ساتھ سارا عالم اسلام ہے۔

آسمان ان کی لحد پر شبنم افشانی کرے

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