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Saturday 22 March 2014

Ghazal By Jigar Muradabadi


ग़ज़ल
जिगर मुरादाबादी
अब तो ये भी नहीं रहा एहसास
दर्द होता है या नहीं होता
इशक़ जब तक ना कर चुके रुसवा
आदमी काम का नहीं होता
टूट पड़ता है दफ़्फ़ातन जो इशक़
बेशतर देरपा नहीं होता
वो भी होता है एक वक़्त कि जब
मासिवा मासिवा नहीं होता
हाय क्या हो गया तबीयत को
ग़म भी राहत फ़िज़ा नहीं होता
दिल हमारा है या तुम्हारा है
हम से ये फ़ैसला नहीं होता
जिस पे तेरी नज़र नहीं होती
उस की जानिब ख़ुदा नहीं होता
में कि बेज़ार उम्र भर के लिए
दिल कि दम भर जुदा नहीं होता
वो हमारे क़रीब होते हैं
जब हमारा पता नहीं होता
दिल को क्या क्या सुकून होता है
जब कोई आसरा नहीं होता
हो के इक बार सामना उन से
फिर कभी सामना नहीं होता

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