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Wednesday 19 March 2014

ग़ज़ल--- जिगर मुरादाबादी

ग़ज़ल
जिगर मुरादाबादी
अब तो ये भी नहीं रहा एहसास
दर्द होता है या नहीं होता
इशक़ जब तक ना कर चुके रुस्वा
आदमी काम का नहीं होता
टूट पड़ता है दफ़्फ़ातन जो इशक़
बेशतर देरपा नहीं होता
वो भी होता है एक वक़्त कि जब
मासिवा मासिवा नहीं होता
हाय क्या हो गया तबीयत को
गुम भी राहत-फ़ज़ा नहीं होता
दिल हमारा है या तुम्हारा है
हमसे ये फ़ैसला नहीं होता
जिस पे तेरी नज़र नहीं होती
इस की जानिब ख़ुदा नहीं होता
मैं कि बेज़ार उम्र-भर के लिए
दिल कि दम-भर जुदा नहीं होता
वो हमारे क़रीब होते हैं
जब हमारा पता नहीं होता
दिल को क्या-क्या सुकून होता है
जब कोई आसरा नहीं होता
हो के इक बार सामना उनसे

फिर कभी नहीं होता


غزل
جگر مراد آبادی
اب تو یہ بھی نہیں رہا احساس
درد ہوتا ہے یا نہیں ہوتا
عشق جب تک نہ کر چکے رسوا
آدمی کام کا نہیں ہوتا
ٹوٹ پڑتا ہے دفعتاً جو عشق
بیشتر دیرپا نہیں ہوتا
وہ بھی ہوتا ہے ایک وقت کہ جب
ماسوا ماسوا نہیں ہوتا
ہائے کیا ہو گیا طبیعت کو
غم بھی راحت فزا نہیں ہوتا
دل ہمارا ہے یا تمہارا ہے
ہم سے یہ فیصلہ نہیں ہوتا
جس پہ تیری نظر نہیں ہوتی
اس کی جانب خدا نہیں ہوتا
میں کہ بےزار عمر بھر کے لیے
دل کہ دم بھر جدا نہیں ہوتا
وہ ہمارے قریب ہوتے ہیں
جب ہمارا پتا نہیں ہوتا
دل کو کیا کیا سکون ہوتا ہے
جب کوئی آسرا نہیں ہوتا
ہو کے اک بار سامنا ان سے
پھر کبھی سامنا نہیں ہوتا

1 comment:

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